सेतुसमुद्रम बनाम इतिहास के राम सेतु …..

भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच चूने की उथली चट्टानों की चेन है , इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज ( आदम का पुल ) के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 30 मील (48 किमी ) है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। अनेक स्थानों पर यह सूखी और कई जगह उथली है जिससे जहाजों का आवागमन संभव नहीं है। इस चट्टानी उथलेपन के कारण यहां नावें चलाने में खासी दिक्कत आती है। कहा जाता है कि 15 शताब्दी तक इस ढांचे पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था लेकिन तूफानों ने यहां समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया।

क्या है सेतुसमुद्रम परियोजना

2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया। इसके तहत एडम्स ब्रिज के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए कुछ चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएंगे। माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
नासा की तस्वीर
नासा से मिली तस्वीर का हवाला देकर दावा किया जाता है कि अवशेष मानवनिर्मित पुल के हैं। नासा का कहना है , ‘ इमेज हमारी है लेकिन यह विश्लेषण हमने नहीं दिया। रिमोट इमेज से नहीं कहा जा सकता कि यह मानवनिर्मित पुल है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने कहा है कि उसके खगोल वैज्ञानिकों द्वारा ली गई तस्वीरें यह साबित नहीं करतीं कि हिंदू ग्रंथ रामायण में वर्णित भगवान राम द्वारा निर्मित रामसेतु का वास्तविक रूप में कोई अस्तित्व रहा है। यह बयान देने के साथ ही नासा ने भाजपा के उस बयान को भी नकार दिया है जिसमें भाजपा ने कहा था कि नासा के पास पाक स्ट्रेट पर एडम्स ब्रिज की तस्वीरें हैं जिन्हें भारत में रामसेतु के नाम से जाना जाता है और कार्बन डेटिंग के जरिए इसका समय 1.7 अरब साल पुराना बताया गया है। नासा के प्रवक्ता माइकल ब्रॉकस ने कहा कि उन्हें कार्बन डेटिंग किए जाने की कोई जानकारी नहीं है।ब्रॉकस ने कहा कि कुछ लोग कुछ तस्वीरें यह कहकर पेश करते हैं कि यह नासा के वैज्ञानिकों द्वारा ली गई हैं लेकिन ऐसे चित्रों की बदौलत कुछ भी साबित करने का कोई आधार नहीं है। गौरतलब है कि अक्टूबर 2002 में कुछ एनआरआई वेबसाइट्स, भारत मूल की समाचार एजेंसियों और हिंदू न्यूज सर्विस के माध्यम से कुछ खबरें आई थीं जिनमें कहा गया था कि नासा द्वारा लिए गए चित्रों में पाक स्ट्रीट पर एक रहस्यमय प्राचीन पुल पाया गया है और इन खबरों को तब भी नासा ने नकारा था। गौरतलब है कि इस पूरे मामले के कारण रामसेतु जिस जगह बताया गया है, भारत और श्रीलंका के बीच बने जलडमरू मध्य के उसी स्थान पर दक्षिण भारत द्वारा प्रस्तावित 24 अरब रुपए की सेतुसमुद्रम नहर परियोजना विवादास्पद हो गई है।

रामसेतु मिथक है या…

वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्री राम ने सीता को लंकापति रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद मांगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता मांगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्री राम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। यही हुआ भी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला।

धर्मग्रंथों में जिक्र है सेतुबंधन का

पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरा पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के डांस ड्रामा में सेतु बंधन का जिक्र किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्री राम के सेतु का जिक्र किया गया है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है।

कितना पुराना है रामसेतु

राम सेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं। कई जगह इसकी उम्र 17 लाख साल बताई गई है, तो कुछ एक्सपर्ट्स इसे करीब साढ़े तीन हजार साल पुराना बताते हैं। इस पर भी कोई एकमत नहीं है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण सवाल उठता रहा है कि आखिर 30 किलोमीटर तक लंबा यह छोटे-छोटे द्वीपों का समूह बना कैसे?
1) राम सेतु करीब 3500 साल पुराना है – रामासामी कहते हैं कि जमीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हजार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए।
2) रामसेतु प्राकृतिक तौर पर नहीं बना – जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टैक्नोलॉजी के सदस्य डॉ. बद्रीनारायण कहते हैं कि इस तरह की प्राकृतिक बनावट मुश्किल से ही दिखती है। यह तभी हो सकता है, जब इसे किसी ने बनाया हो। कुछ शिलाखंड तो इतने हल्के हैं कि वे पानी पर तैर सकते हैं।
3) ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने विस्तृत सर्वे में इसे प्राकृतिक बताया था – देश के इस जाने माने इंस्टीट्यूट ने राम सेतु के आसपास 91 बोरहोल्स बनाकर वहां से सैंपल लिए थे और उनकी पड़ताल की थी। इन्हें सेतु प्रोजेक्ट के दफ्तर में रखा गया था।
4) नासा कहता है कि रामसेतु प्राकृतिक तौर पर बना – अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का कहना है कि भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में मौजूद ढांचा किसी भी हालत में आदमी का बनाया हुआ नहीं है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। सेतुसमुद्रम कॉपरेरेशन लि. के सीईओ एनके रघुपति के मुताबिक उन्हें नासा के जॉन्सन स्पेस सेंटर की ओर से मिले ईमेल में नासा ने अपने पक्ष का खुलासा किया है। नासा की तस्वीरों को लेकर काफी होहल्ला पहले ही मच चुका है।

श्रीरामसेतु के टूटने का मतलब

भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित श्रीरामसेतु अगर भारत में न होकर विश्व में कहीं और होता तो वहां की सरकार इसे ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर संरक्षित करती। भारत में भी यदि इस सेतु के साथ किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख महापुरूष का नाम होता तो इसे तोड़ने की कल्पना तो दूर इसे बचाने के लिए संपूर्ण भारत की सेक्युलर बिरादरी जमीन आसमान एक कर देती। यह केवल यहीं संभव है कि यहां की सरकार बहुमत की आस्था ही नहीं पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा, लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रामसेतु जैसी प्राचीनतम धरोहर को नष्ट करने की हठधर्मिता कर रही है। हिंदू समाज विकास का विरोधी नहीं परंतु यदि कोई हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण विकास की जगह विनाश को आमंत्रित करेगा तो उसे हिंदू समाज के आक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। समुद्री यात्रा को छोटा कर 424 समुद्री मील बचाने व इसके कारण समय और पैसे की होने वाली बचत से कोई असहमत नहीं हो सकता लेकिन सेतुसमुन्द्रम योजाना के कम खर्चीले और अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया गया जिनसे न केवल रामसेतु बचता है अपितु प्रस्तावित विकल्प के विनाशकारी नुकसानों से बचा सकता है? इस योजना को पूरा करने की जल्दबाजी और केवल अगली सुनवाई तक रामसेतु को क्षति न पहुंचाने का आश्वासन देने से माननीय सुप्रीम कोर्ट को मना करना क्या भारत सरकार के इरादों के प्रति संदेह निर्माण नहीं करता?
1860 से इस परियोजना पर विचार चल रहा है। विभिन्न संभावनाओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया जा चुका है। सभी समितियों ने रामसेतु को तोड़ने के विकल्प को देश के लिए घातक बताते हुए कई प्रकार की चेतावनियां भी दी हैं। इसके बावजूद जिस काम को करने से अंग्रेज भी बचते रहे, उसे करने का दुस्साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर रही है। सभी विकल्पों के लाभ-हानि का विचार किए बिना जिस जल्दबाजी में इस परियोजना का उद्घाटन किया गया, उसे किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। भारत व श्रीलंका के बीच का समुद्र दोनों देशों की एतिहासिक विरासत है परंतु अचानक 23 जून 2005 को अमेरिकी नौसेना ने इस समुद्र को अंतरराष्ट्रीय समुद्र घोषित कर दिया और तुतीकोरण पोर्ट ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष रघुपति ने 30 जून 2005 को गोलमोल ढंग से अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। इसके तुरंत बाद 2 जुलाई 2005 को भारत के प्रधानमंत्री व जहाजरानी मंत्री कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और करूणानिधि को साथ ले जाकर आनन-फानन में इस परियोजना का उद्घाटन कर देते हैं। इस घटनाचक्र से ऐसा लगता है मानो भारत सरकार अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दे रही है।
कनाडा के सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि 2004 में आई विनाशकारी सुनामी लहरों से केरल की रक्षा रामसेतु के कारण ही हो पाई। अगर रामसेतु टूटता है तो अगली सुनामी से केरल को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस परियोजना से हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएंगे और इन पर आधारित लाखों लोगों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रूपये की वार्षिक आय होती है, से हमें वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। इसीलिए कनाडा ने थोरियम पर आधारित रियेक्टर विकसित किया है। यदि विकल्प का सही प्रकार से प्रयोग किया जाए तो हमें यूरेनियम के लिए अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसीलिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद कई बार थोरियम आधारित रियेक्टर बनाने का आग्रह किया है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा।
इतना सब खोने के बावजूद रामसेतु को तोड़कर बनाए जाने वाली इस नहर की क्या उपयोगिता है, यह भी एक बहुत ही रोचक तथ्य है। 300 फुट चौड़ी व 12 मीटर गहरी इस नहर से भारी मालवाहक जहाज नहीं जा सकेंगे। केवल खाली जहाज या सर्वे के जहाज ही इस नहर का उपयोग कर सकेंगे और वे भी एक पायलट जहाज की सहायता से जिसका प्रतिदिन खर्चा 30 लाख रूपये तक हो सकता है। इतनी अधिक लागत के कारण इस नहर का व्यावसायिक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसीलिए 2500 करोड़ रूपये की लागत वाले इस प्रकल्प में निजी क्षेत्र ने कोई रूचि नहीं दिखाई। ऐसा लगता है कि अगर यह नहर बनी तो इससे जहाज नहीं केवल सुनामी की विनाशकारी लहरें ही जाएंगी।
रामसेतु की रक्षा के लिए भारत के अधिकांश साधु संत, कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक संगठन, कई पूर्व न्यायाधीश, स्थानीय मछुआरे सभी प्रकार के प्रजातांत्रिक उपाय कर चुके हैं। लेकिन जेहादी एवं नक्सली आतंकियों से बार-बार वार्ता करने वाली सेकुलर सरकार को इन देशभक्त और प्रकृति प्रेमी भारतीयों से बात करने की फुर्सत नहीं है। इसीलिए मजबूर होकर 12 सितम्बर 2007 को पूरे देश में चक्का जाम का आंदोलन करना पड़ा। इससे रामसेतु को तोड़ने पर होने वाले आक्रोश की कल्पना की जा सकती है।
राम सेतु पर राजनीति
केंद्र सरकार ने सेतु मुद्दे पर अपनी गर्दन फंसते देख तुरंत यू-टर्न लेते हुए उच्चतम न्यायालय में दाखिल विवादित हलफनामा वापस ले लिया। अब निकट भविष्य में सरकार संशोधित हलफनामा दायर करेगी। इससे पूर्व केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया था। केंद्र की आ॓र से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दिए गए शपथपत्र में कहा गया था कि बाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरित मानस और अन्य पौराणिक सामग्री ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हो सकते जिनसे पुस्तक में वर्णित चरित्रों के अस्तित्व को साबित किया जा सके। केंद्र के अनुसार 17 लाख 50 हजार वर्ष पुराने इस कथित राम सेतु का निर्माण राम ने नहीं किया बल्कि यह रेत और बालू से बना प्राकृतिक ढांचा है जिसने सदियों से लहरों और तलछट के कारण विशेष रूप ले लिया।
केंद्र सरकार द्वारा दायर इस हलफनामे के बाद एकाएक हिन्दू संगठनों में आक्रोश फैल गया। चारों आ॓र केंद्र सरकार द्वारा दायर हलफनामे की निंदा की जाने लगी। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री और कानून मंत्री से फोन पर बात कर यह शपथपत्र वापस लेने की मांग की थी उन्होंने कहा था कि सरकार के इस कार्य से करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची है।
केंद्र की सेतु समुद्रम परियोजना को जारी रखने के फैसले के खिलाफ विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) ने भी कम कसते हुए देशभर में प्रदर्शन और चक्काजाम किया। इस दौरान कानपुर में कार्यकर्ताओं के पथराव में तीन पुलिसकर्मी तथा पुलिस के लाठीचार्ज में कुछ कार्यकर्ता घायल हो गए। इंदौर में दो गुटों के बीच संघर्ष की वजह से क्षेत्र में निषेधाज्ञा लगा दी गई, जबकि इंदौर में ही एक अन्य स्थान पर चार लोगों को गिरफ्तार किया गया।
विहिप और संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों में आज चक्काजाम करने से कई जगह यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। कुछ जगहों पर चक्काजाम के दौरान झड़प भी हुई। हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने शहर में सौ से ज्यादा जगहों पर चक्काजाम किया। तीन घंटे चले इस चक्काजाम से लोगों को खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा।
राजस्थान में भी चक्काजाम का व्यापक असर रहा। इसके चलते तीन घंटे तक सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। राज्य में सुबह आठ बजे से शुरू हुए चक्काजाम आंदोलन के कारण सरकारी बस सेवा समेत अन्य वाहन नहीं चले, जिसके कारण मुख्य सड़कें सूनी रहीं। वहीं केरल के कोयम्बटूर जिले में 25 स्थानों पर भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के करीब 1100 कार्यकर्ताओं को सड़क मार्ग बाधित करने की कोशिश करते हुए हिरासत में लिया गया। मुंबई से प्राप्त समाचार के अनुसार उत्तर पश्चिम मुंबई के एसवी रोड, साकी नाका और टुर्भे नाका समेत 23 व्यस्त सड़कों पर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों ने जाम लगाया। इससे यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
बिहार में राजधानी पटना सहित विभिन्न जिलों में विहिप तथ संघ परिवार के संगठनों ने चक्काजाम किया। बंद समर्थकों ने प्रदेश के बेतिया-मोतिहारी, मुजफ्फरपुर-पटना सहित कई अन्य राष्ट्रीय राजमार्गों को जाम किया।
अहमदाबाद में विहिप एवं संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं ने गुजरात के 246 स्थानों पर चक्काजाम किया।
केंद्र सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना पर उठते विवाद व दायर हलफनामे से उपजी स्थिति से निपटने के लिए सबसे पहले तो दायर हलफनामा को वापस लेते हुए अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम ने मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आर. वी. रवीन्द्रन की खंडपीठ के समक्ष दलील दी कि सरकार का इरादा किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं था। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि सरकार ने लोगों की भावनाएं आहत होने के मद्देनजर हलफनामा वापस लेने का निर्णय लिया है और वह नया हलफनामा दायर करेगी।
न्यायालय ने नया हलफनामा दायर करने से पहले इस मुद्दे पर फिर से विचार करने के लिए केंद्र सरकार को तीन महीने का समय दिया और मामले की सुनवाई अगले वर्ष जनवरी के पहले सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी। इससे पहले श्री सुब्रमण्यम ने न्यायालय के समक्ष दलील दी कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है और बगैर किसी दुर्भावना के वह पूरे मसले की समीक्षा करेगी। सरकार आवश्यकता पडने पर याचिकाकर्ता सहित सभी संबद्ध पक्षों से लोकतांत्रिक भावना के तहत विचार विमर्श करेगी. क्योंकि यह संवेदनशील मसला है।खंडपीठ ने 31 अगस्त के उस अंतरिम आदेश को बरकरार रखने का भी निर्देश दिया है, जिसमें रामसेतु को किसी भी तरह से क्षतिग्रस्त नहीं करने का सरकार को निर्देश दिया गया था। अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल ने कहा कि यथास्थिति आदेश को सुनवाई की अगली तारीख तक बढाया जाता है तो भी सरकार को कोई एतराज नहीं है।सरकार ने स्थिति नियंत्रित करने के प्रयास के तहत न्यायालय के समक्ष दलील दी कि केंद्र सरकार ने सार्वजनिक भावनाओं को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है। सरकार सभी धर्मों, खासकर हिन्दुत्व के प्रति पूरा सम्मान रखती है। उन्होंने कहा कि सरकार सभी संबंधित पक्षों को आश्वस्त करती है कि सभी मुद्दों की फिर से सावधानीपूर्वक और परिस्थितिजन्य स्थितियों के तहत जांच की जाएगी और वैकल्पिक सलाहों को भी ध्यान में रखा जाएगा। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि केंद्र सरकार भी चाहती है कि उसके फैसले धार्मिक और सामाजिक बिखराव लाने की बजाय समाज को एकजुट बनाए। उन्होंने मामले की समीक्षा और उस पर पुनर्विचार के लिए सरकार को तीन महीने का समय दिये जाने का न्यायालय से आग्रह भी किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार का हलफनामा किसी भी तरह से धार्मिक मान्यताओं और स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं दाखिल किया गया था।
वाजपेयी सरकार ने दी थी मंजूरी
1860 से ही कई बार इस परियोजना पर विचार हुआ। आजादी के बाद 1955 में डा. ए. रामास्वामी मुदालियार के नेतृत्व में सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट कमेटी बनी। कमेटी ने परियोजना को उपयुक्त पाया। 13 मार्च 2003 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इसे मंजूरी दी। अंतत: 2 जून 2005 को मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल में इसकी शुरूआत हुई।

राम सेतु नहीं यह नल सेतु

सेतु समुद्रम परियोजना पर एक बार चर्चा फिर छिड़ गई है। खासकर इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक संदर्भों के बारे में। समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था।
वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि : –
नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।।
रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है-
वाल्मीक रामायण में लिखा है –
अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरूणालयम्।। सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।।
(हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ?) (6/19/28)
वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है –
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती।।
समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे।
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी –
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किए” गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
(समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ” बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि ब”धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु” गाइअ।।
(मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा)सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)
यह पुल इतना मजबूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरूआत में ही वर्णन आता है कि –
बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76)
सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे –
पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च।
(कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा – समुद्रतट पर ले आए)। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है – सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृाायतं शतयोजनम्। (6/22/62) (कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से -सिधाई में हो रहा था।)
सेतु पर रोचक प्रसंग :
* तेलुगू भाषा की रंगनाथरामायण में प्रसंग आता है कि सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था।
* एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे लेकिन वह इधर-उधर बह जाते थे। इनको जोड़ने के लिए हनुमान ने एक युक्ति निकाली और एक पत्थर पर ‘रा’ तो दूसरे पर ‘म’ लिखा जाने लगा। इससे पत्थर जुड़ने लगे और सेतु का काम आसान हो गया।
* तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में वर्णन आता है कि सेतु निर्माण के बाद राम की सेना में वयोवृद्ध जाम्बवंत ने कहा था – ‘श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान’ अर्थात भगवान श्री राम के प्रताप से सिंधु पर पत्थर भी तैरने लगे।
वाल्मीकि रामायण में रामसेतु के प्रमाण
रामसेतु के मामले में भारतीय पुरातत्व विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में राम और रामायण के अस्तित्व को नकारने वाला जो हलफनामा दायर किया था वह करोड़ों देशवासियों की आस्था को चोट पहुंचाने वाला ही नहीं बल्कि इससे पुरातत्व विभाग की इतिहास दृष्टि पर भी बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। एएसआई के निदेशक (स्मारक) सी दोरजी का यह कहना कि राम सेतु के मुद्दे पर वाल्मीकि रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता है, भारत की ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति के सर्वथा विरूद्ध है।
एक पुरातत्ववेत्ता के रूप में शायद उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए था कि एएसआई के संस्थापक और पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने सन 1862-63 में अयोध्या की पुरातात्त्विक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी तो उन्होंने वाल्मीकि रामायण के आधार पर अयोध्या को एक ऐतिहासिक नगरी बताया था। कनिंघम ने उस रिपोर्ट में यह भी बताया था कि मनु द्वारा स्थापित इस अयोध्या के मध्य में राम का जन्म स्थान मंदिर था। सन् 1908 में प्रकाशित ब्रिटिशकालीन ‘इम्पीरियल गजैटियर ऑफ इन्डिया’ के खण्ड पांच में ‘एडम ब्रिज’ के बारे में जो ऐतिहासिक विवरण प्रकाशित हुआ है उसमें भी यह कहा गया है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार राम द्वारा लंका में सैनिक प्रयाण के अवसर पर यह पुल हनुमान और उनकी सेना द्वारा बनाया गया था। डॉ. राजबली पाण्डेय के ‘हिन्दू धर्म कोश’ (पृ. 558) के अनुसार रामायण के नायक राम ने लंका के राजा रावण पर आक्रमण करने के लिए राम सेतु का निर्माण किया था। भारतीय तट से लेकर श्रीलंका के तट तक समुद्र का उथला होना और वह भी एक सीध में इस विश्वास को पुष्ट करता है कि यह रामायणकालीन घटनाक्रम से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अवशेष है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का बाईसवां अध्याय विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा सौ योजन लम्बे रामसेतु का विस्तार से वर्णन करता है। रामायण में 100 योजन लम्बे और 10 योजन चौड़े इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है-
दश योजन विस्तर्ीणं शतयोजनमायतम्।
दहशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम् ।। वा.रा., युद्ध. 22.76
नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया थाा। विशालकाय पर्वतों और वृक्षों को काटकर समुद्र में फेंका गया था। बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वत खण्डों को उखाड़कर यंत्रों के द्वारा समुद्र तट तक लाया गया था- ‘पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रै: परिवहन्ति च’। वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त ‘अध्यात्म रामायण’ के युद्धकाण्ड में भी नल द्वारा सौ योजन सेतु निर्माण का उल्लेख मिलता है-
‘‘बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं सुविस्तृतं पर्वत पादपैर्दृढम्।’’
दरअसल. रामायणकालीन इतिहास के सन्दर्भ में पुरातत्त्व विभाग का गैर ऐतिहासिक रवैया रहा है। प्रोव् बी.बी. लाल की अध्यक्षता में 1977 से 1980 तक रामायण परियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, चित्रकूट, जनकपुर, श्रृंगवेरपुर, भरद्वाज आश्रम का पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन किया किन्तु श्रृंगवेरपुर को छोड़कर अन्य रामायण स्थलों की रिपोर्ट आज तक प्रकाशित नहीं हुई। वर्तमान निदेशक (स्मारक) को रामायण की ऐतिहासिकता को नकारने से पहले पुरातत्त्व विभाग द्वारा रामायण परियोजनाओं की रिपोर्ट की जानकारी देनी चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि जब रामायण के स्थलों की खुदाई का सवाल हो तो वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मान लिया जाए मगर रामसेतु के मसले पर रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज मानने से इन्कार कर दिया जाए। जाने माने पुरातत्त्ववेत्ता गोवर्धन राय शर्मा के अनुसार प्रो. लाल को परिहार से ताम्रयुगीन संस्कृति के तीर भी मिले थे जो स्थानीय लागों के अनुसार लव और कुश के तीर थे। किन्तु इन सभी पुरातत्त्वीय सामग्री की व्याख्या तभी संभव है जब वाल्मीकि रामायण को इतिहास का स्रोत माना जाए।

भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच चूने की उथली चट्टानों की चेन है , इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज ( आदम का पुल ) के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 30 मील (48 किमी ) है। यह ढांचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। अनेक स्थानों पर यह सूखी और कई जगह उथली है जिससे जहाजों का आवागमन संभव नहीं है। इस चट्टानी उथलेपन के कारण यहां नावें चलाने में खासी दिक्कत आती है। कहा जाता है कि 15 शताब्दी तक इस ढांचे पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था लेकिन तूफानों ने यहां समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया।

क्या है सेतुसमुद्रम परियोजना

2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया। इसके तहत एडम्स ब्रिज के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए कुछ चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएंगे। माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।
नासा की तस्वीर
नासा से मिली तस्वीर का हवाला देकर दावा किया जाता है कि अवशेष मानवनिर्मित पुल के हैं। नासा का कहना है , ‘ इमेज हमारी है लेकिन यह विश्लेषण हमने नहीं दिया। रिमोट इमेज से नहीं कहा जा सकता कि यह मानवनिर्मित पुल है। अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा ने कहा है कि उसके खगोल वैज्ञानिकों द्वारा ली गई तस्वीरें यह साबित नहीं करतीं कि हिंदू ग्रंथ रामायण में वर्णित भगवान राम द्वारा निर्मित रामसेतु का वास्तविक रूप में कोई अस्तित्व रहा है। यह बयान देने के साथ ही नासा ने भाजपा के उस बयान को भी नकार दिया है जिसमें भाजपा ने कहा था कि नासा के पास पाक स्ट्रेट पर एडम्स ब्रिज की तस्वीरें हैं जिन्हें भारत में रामसेतु के नाम से जाना जाता है और कार्बन डेटिंग के जरिए इसका समय 1.7 अरब साल पुराना बताया गया है। नासा के प्रवक्ता माइकल ब्रॉकस ने कहा कि उन्हें कार्बन डेटिंग किए जाने की कोई जानकारी नहीं है।ब्रॉकस ने कहा कि कुछ लोग कुछ तस्वीरें यह कहकर पेश करते हैं कि यह नासा के वैज्ञानिकों द्वारा ली गई हैं लेकिन ऐसे चित्रों की बदौलत कुछ भी साबित करने का कोई आधार नहीं है। गौरतलब है कि अक्टूबर 2002 में कुछ एनआरआई वेबसाइट्स, भारत मूल की समाचार एजेंसियों और हिंदू न्यूज सर्विस के माध्यम से कुछ खबरें आई थीं जिनमें कहा गया था कि नासा द्वारा लिए गए चित्रों में पाक स्ट्रीट पर एक रहस्यमय प्राचीन पुल पाया गया है और इन खबरों को तब भी नासा ने नकारा था। गौरतलब है कि इस पूरे मामले के कारण रामसेतु जिस जगह बताया गया है, भारत और श्रीलंका के बीच बने जलडमरू मध्य के उसी स्थान पर दक्षिण भारत द्वारा प्रस्तावित 24 अरब रुपए की सेतुसमुद्रम नहर परियोजना विवादास्पद हो गई है।

रामसेतु मिथक है या…

वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्री राम ने सीता को लंकापति रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद मांगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता मांगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया। डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्री राम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। यही हुआ भी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की। नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला।

धर्मग्रंथों में जिक्र है सेतुबंधन का

पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरा पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के डांस ड्रामा में सेतु बंधन का जिक्र किया जाता है। राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्री राम के सेतु का जिक्र किया गया है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ-साथ राम सेतु कहा गया है।

कितना पुराना है रामसेतु

राम सेतु की उम्र को लेकर महाकाव्य रामायण के संदर्भ में कई दावे किए जाते रहे हैं। कई जगह इसकी उम्र 17 लाख साल बताई गई है, तो कुछ एक्सपर्ट्स इसे करीब साढ़े तीन हजार साल पुराना बताते हैं। इस पर भी कोई एकमत नहीं है। इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण सवाल उठता रहा है कि आखिर 30 किलोमीटर तक लंबा यह छोटे-छोटे द्वीपों का समूह बना कैसे?
1) राम सेतु करीब 3500 साल पुराना है – रामासामी कहते हैं कि जमीन और बीचों का निर्माण साढ़े तीन हजार पहले रामनाथपुरम और पंबन के बीच हुआ था। इसकी वजह थी रामेश्वरम और तलाईमन्नार के दक्षिण में किनारों को काटने वाली लहरें। वह आगे कहते हैं कि हालांकि बीचों की कार्बन डेटिंग मुश्किल से ही रामायण काल से मिलती है, लेकिन रामायण से इसके संबंध की पड़ताल होनी ही चाहिए।
2) रामसेतु प्राकृतिक तौर पर नहीं बना – जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के पूर्व निदेशक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टैक्नोलॉजी के सदस्य डॉ. बद्रीनारायण कहते हैं कि इस तरह की प्राकृतिक बनावट मुश्किल से ही दिखती है। यह तभी हो सकता है, जब इसे किसी ने बनाया हो। कुछ शिलाखंड तो इतने हल्के हैं कि वे पानी पर तैर सकते हैं।
3) ज्योलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने विस्तृत सर्वे में इसे प्राकृतिक बताया था – देश के इस जाने माने इंस्टीट्यूट ने राम सेतु के आसपास 91 बोरहोल्स बनाकर वहां से सैंपल लिए थे और उनकी पड़ताल की थी। इन्हें सेतु प्रोजेक्ट के दफ्तर में रखा गया था।
4) नासा कहता है कि रामसेतु प्राकृतिक तौर पर बना – अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा का कहना है कि भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में मौजूद ढांचा किसी भी हालत में आदमी का बनाया हुआ नहीं है। यह पूरी तरह प्राकृतिक है। सेतुसमुद्रम कॉपरेरेशन लि. के सीईओ एनके रघुपति के मुताबिक उन्हें नासा के जॉन्सन स्पेस सेंटर की ओर से मिले ईमेल में नासा ने अपने पक्ष का खुलासा किया है। नासा की तस्वीरों को लेकर काफी होहल्ला पहले ही मच चुका है।

श्रीरामसेतु के टूटने का मतलब

भगवान श्रीराम द्वारा निर्मित श्रीरामसेतु अगर भारत में न होकर विश्व में कहीं और होता तो वहां की सरकार इसे ऐतिहासिक धरोहर घोषित कर संरक्षित करती। भारत में भी यदि इस सेतु के साथ किसी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख महापुरूष का नाम होता तो इसे तोड़ने की कल्पना तो दूर इसे बचाने के लिए संपूर्ण भारत की सेक्युलर बिरादरी जमीन आसमान एक कर देती। यह केवल यहीं संभव है कि यहां की सरकार बहुमत की आस्था ही नहीं पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा, लाखों भारतीयों की रोजी-रोटी और राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा कर रामसेतु जैसी प्राचीनतम धरोहर को नष्ट करने की हठधर्मिता कर रही है। हिंदू समाज विकास का विरोधी नहीं परंतु यदि कोई हिंदू विरोधी और राष्ट्र विरोधी मानसिकता के कारण विकास की जगह विनाश को आमंत्रित करेगा तो उसे हिंदू समाज के आक्रोश का सामना करना ही पड़ेगा। समुद्री यात्रा को छोटा कर 424 समुद्री मील बचाने व इसके कारण समय और पैसे की होने वाली बचत से कोई असहमत नहीं हो सकता लेकिन सेतुसमुन्द्रम योजाना के कम खर्चीले और अधिक व्यावहारिक विकल्पों पर विचार क्यों नहीं किया गया जिनसे न केवल रामसेतु बचता है अपितु प्रस्तावित विकल्प के विनाशकारी नुकसानों से बचा सकता है? इस योजना को पूरा करने की जल्दबाजी और केवल अगली सुनवाई तक रामसेतु को क्षति न पहुंचाने का आश्वासन देने से माननीय सुप्रीम कोर्ट को मना करना क्या भारत सरकार के इरादों के प्रति संदेह निर्माण नहीं करता?
1860 से इस परियोजना पर विचार चल रहा है। विभिन्न संभावनाओं पर विचार करने के लिए कई समितियों का गठन किया जा चुका है। सभी समितियों ने रामसेतु को तोड़ने के विकल्प को देश के लिए घातक बताते हुए कई प्रकार की चेतावनियां भी दी हैं। इसके बावजूद जिस काम को करने से अंग्रेज भी बचते रहे, उसे करने का दुस्साहस वर्तमान केंद्रीय सरकार कर रही है। सभी विकल्पों के लाभ-हानि का विचार किए बिना जिस जल्दबाजी में इस परियोजना का उद्घाटन किया गया, उसे किसी भी दृष्टि में उपयुक्त नहीं कहा जा सकता। भारत व श्रीलंका के बीच का समुद्र दोनों देशों की एतिहासिक विरासत है परंतु अचानक 23 जून 2005 को अमेरिकी नौसेना ने इस समुद्र को अंतरराष्ट्रीय समुद्र घोषित कर दिया और तुतीकोरण पोर्ट ट्रस्ट के तत्कालीन अध्यक्ष रघुपति ने 30 जून 2005 को गोलमोल ढंग से अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। इसके तुरंत बाद 2 जुलाई 2005 को भारत के प्रधानमंत्री व जहाजरानी मंत्री कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और करूणानिधि को साथ ले जाकर आनन-फानन में इस परियोजना का उद्घाटन कर देते हैं। इस घटनाचक्र से ऐसा लगता है मानो भारत सरकार अमेरिकी हितों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दे रही है।
कनाडा के सुनामी विशेषज्ञ प्रो. ताड मूर्ति ने अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में स्पष्ट कहा था कि 2004 में आई विनाशकारी सुनामी लहरों से केरल की रक्षा रामसेतु के कारण ही हो पाई। अगर रामसेतु टूटता है तो अगली सुनामी से केरल को बचाना मुश्किल हो जाएगा। इस परियोजना से हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएंगे और इन पर आधारित लाखों लोगों के भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रूपये की वार्षिक आय होती है, से हमें वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। इसीलिए कनाडा ने थोरियम पर आधारित रियेक्टर विकसित किया है। यदि विकल्प का सही प्रकार से प्रयोग किया जाए तो हमें यूरेनियम के लिए अमेरिका के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ेगा। इसीलिए भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आजाद कई बार थोरियम आधारित रियेक्टर बनाने का आग्रह किया है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भण्डार से हाथ धोना पड़ेगा।
इतना सब खोने के बावजूद रामसेतु को तोड़कर बनाए जाने वाली इस नहर की क्या उपयोगिता है, यह भी एक बहुत ही रोचक तथ्य है। 300 फुट चौड़ी व 12 मीटर गहरी इस नहर से भारी मालवाहक जहाज नहीं जा सकेंगे। केवल खाली जहाज या सर्वे के जहाज ही इस नहर का उपयोग कर सकेंगे और वे भी एक पायलट जहाज की सहायता से जिसका प्रतिदिन खर्चा 30 लाख रूपये तक हो सकता है। इतनी अधिक लागत के कारण इस नहर का व्यावसायिक उपयोग नहीं हो सकेगा। इसीलिए 2500 करोड़ रूपये की लागत वाले इस प्रकल्प में निजी क्षेत्र ने कोई रूचि नहीं दिखाई। ऐसा लगता है कि अगर यह नहर बनी तो इससे जहाज नहीं केवल सुनामी की विनाशकारी लहरें ही जाएंगी।
रामसेतु की रक्षा के लिए भारत के अधिकांश साधु संत, कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक, सामाजिक व धार्मिक संगठन, कई पूर्व न्यायाधीश, स्थानीय मछुआरे सभी प्रकार के प्रजातांत्रिक उपाय कर चुके हैं। लेकिन जेहादी एवं नक्सली आतंकियों से बार-बार वार्ता करने वाली सेकुलर सरकार को इन देशभक्त और प्रकृति प्रेमी भारतीयों से बात करने की फुर्सत नहीं है। इसीलिए मजबूर होकर 12 सितम्बर 2007 को पूरे देश में चक्का जाम का आंदोलन करना पड़ा। इससे रामसेतु को तोड़ने पर होने वाले आक्रोश की कल्पना की जा सकती है।

राम सेतु पर राजनीति

केंद्र सरकार ने सेतु मुद्दे पर अपनी गर्दन फंसते देख तुरंत यू-टर्न लेते हुए उच्चतम न्यायालय में दाखिल विवादित हलफनामा वापस ले लिया। अब निकट भविष्य में सरकार संशोधित हलफनामा दायर करेगी। इससे पूर्व केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दाखिल किया था। केंद्र की आ॓र से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दिए गए शपथपत्र में कहा गया था कि बाल्मीकि रामायण, तुलसीदास कृत रामचरित मानस और अन्य पौराणिक सामग्री ऐसे ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं हो सकते जिनसे पुस्तक में वर्णित चरित्रों के अस्तित्व को साबित किया जा सके। केंद्र के अनुसार 17 लाख 50 हजार वर्ष पुराने इस कथित राम सेतु का निर्माण राम ने नहीं किया बल्कि यह रेत और बालू से बना प्राकृतिक ढांचा है जिसने सदियों से लहरों और तलछट के कारण विशेष रूप ले लिया।
केंद्र सरकार द्वारा दायर इस हलफनामे के बाद एकाएक हिन्दू संगठनों में आक्रोश फैल गया। चारों आ॓र केंद्र सरकार द्वारा दायर हलफनामे की निंदा की जाने लगी। विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने प्रधानमंत्री और कानून मंत्री से फोन पर बात कर यह शपथपत्र वापस लेने की मांग की थी उन्होंने कहा था कि सरकार के इस कार्य से करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंची है।
केंद्र की सेतु समुद्रम परियोजना को जारी रखने के फैसले के खिलाफ विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) ने भी कम कसते हुए देशभर में प्रदर्शन और चक्काजाम किया। इस दौरान कानपुर में कार्यकर्ताओं के पथराव में तीन पुलिसकर्मी तथा पुलिस के लाठीचार्ज में कुछ कार्यकर्ता घायल हो गए। इंदौर में दो गुटों के बीच संघर्ष की वजह से क्षेत्र में निषेधाज्ञा लगा दी गई, जबकि इंदौर में ही एक अन्य स्थान पर चार लोगों को गिरफ्तार किया गया।
विहिप और संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं द्वारा राजधानी दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों में आज चक्काजाम करने से कई जगह यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ। कुछ जगहों पर चक्काजाम के दौरान झड़प भी हुई। हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने शहर में सौ से ज्यादा जगहों पर चक्काजाम किया। तीन घंटे चले इस चक्काजाम से लोगों को खासी दिक्कत का सामना करना पड़ा।
राजस्थान में भी चक्काजाम का व्यापक असर रहा। इसके चलते तीन घंटे तक सामान्य जनजीवन अस्त-व्यस्त रहा। राज्य में सुबह आठ बजे से शुरू हुए चक्काजाम आंदोलन के कारण सरकारी बस सेवा समेत अन्य वाहन नहीं चले, जिसके कारण मुख्य सड़कें सूनी रहीं। वहीं केरल के कोयम्बटूर जिले में 25 स्थानों पर भाजपा और अन्य हिन्दू संगठनों के करीब 1100 कार्यकर्ताओं को सड़क मार्ग बाधित करने की कोशिश करते हुए हिरासत में लिया गया। मुंबई से प्राप्त समाचार के अनुसार उत्तर पश्चिम मुंबई के एसवी रोड, साकी नाका और टुर्भे नाका समेत 23 व्यस्त सड़कों पर संघ परिवार और उससे जुड़े संगठनों ने जाम लगाया। इससे यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ा।
बिहार में राजधानी पटना सहित विभिन्न जिलों में विहिप तथ संघ परिवार के संगठनों ने चक्काजाम किया। बंद समर्थकों ने प्रदेश के बेतिया-मोतिहारी, मुजफ्फरपुर-पटना सहित कई अन्य राष्ट्रीय राजमार्गों को जाम किया।
अहमदाबाद में विहिप एवं संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं ने गुजरात के 246 स्थानों पर चक्काजाम किया।
केंद्र सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना पर उठते विवाद व दायर हलफनामे से उपजी स्थिति से निपटने के लिए सबसे पहले तो दायर हलफनामा को वापस लेते हुए अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रमण्यम ने मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति आर. वी. रवीन्द्रन की खंडपीठ के समक्ष दलील दी कि सरकार का इरादा किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं था। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि सरकार ने लोगों की भावनाएं आहत होने के मद्देनजर हलफनामा वापस लेने का निर्णय लिया है और वह नया हलफनामा दायर करेगी।
न्यायालय ने नया हलफनामा दायर करने से पहले इस मुद्दे पर फिर से विचार करने के लिए केंद्र सरकार को तीन महीने का समय दिया और मामले की सुनवाई अगले वर्ष जनवरी के पहले सप्ताह तक के लिए स्थगित कर दी। इससे पहले श्री सुब्रमण्यम ने न्यायालय के समक्ष दलील दी कि सरकार सभी धर्मों का सम्मान करती है और बगैर किसी दुर्भावना के वह पूरे मसले की समीक्षा करेगी। सरकार आवश्यकता पडने पर याचिकाकर्ता सहित सभी संबद्ध पक्षों से लोकतांत्रिक भावना के तहत विचार विमर्श करेगी. क्योंकि यह संवेदनशील मसला है।खंडपीठ ने 31 अगस्त के उस अंतरिम आदेश को बरकरार रखने का भी निर्देश दिया है, जिसमें रामसेतु को किसी भी तरह से क्षतिग्रस्त नहीं करने का सरकार को निर्देश दिया गया था। अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल ने कहा कि यथास्थिति आदेश को सुनवाई की अगली तारीख तक बढाया जाता है तो भी सरकार को कोई एतराज नहीं है।सरकार ने स्थिति नियंत्रित करने के प्रयास के तहत न्यायालय के समक्ष दलील दी कि केंद्र सरकार ने सार्वजनिक भावनाओं को ध्यान में रखकर यह फैसला किया है। सरकार सभी धर्मों, खासकर हिन्दुत्व के प्रति पूरा सम्मान रखती है। उन्होंने कहा कि सरकार सभी संबंधित पक्षों को आश्वस्त करती है कि सभी मुद्दों की फिर से सावधानीपूर्वक और परिस्थितिजन्य स्थितियों के तहत जांच की जाएगी और वैकल्पिक सलाहों को भी ध्यान में रखा जाएगा। श्री सुब्रमण्यम ने कहा कि केंद्र सरकार भी चाहती है कि उसके फैसले धार्मिक और सामाजिक बिखराव लाने की बजाय समाज को एकजुट बनाए। उन्होंने मामले की समीक्षा और उस पर पुनर्विचार के लिए सरकार को तीन महीने का समय दिये जाने का न्यायालय से आग्रह भी किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि केंद्र सरकार का हलफनामा किसी भी तरह से धार्मिक मान्यताओं और स्वतंत्रता को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं दाखिल किया गया था।
वाजपेयी सरकार ने दी थी मंजूरी
1860 से ही कई बार इस परियोजना पर विचार हुआ। आजादी के बाद 1955 में डा. ए. रामास्वामी मुदालियार के नेतृत्व में सेतु समुद्रम प्रोजेक्ट कमेटी बनी। कमेटी ने परियोजना को उपयुक्त पाया। 13 मार्च 2003 को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने इसे मंजूरी दी। अंतत: 2 जून 2005 को मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के कार्यकाल में इसकी शुरूआत हुई।

राम सेतु नहीं यह नल सेतु

सेतु समुद्रम परियोजना पर एक बार चर्चा फिर छिड़ गई है। खासकर इसके ऐतिहासिक और वैज्ञानिक संदर्भों के बारे में। समुद्र पर बनाए गए पुल के बारे में चर्चा तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस और वाल्मीक रामायण के अलावा दूसरी अन्य राम कथाओं में भी मिलती हैं। आश्चर्यजनक ढंग से राम के सेतु की चर्चा तो आती है लेकिन उस सेतु का नाम रामसेतु था, ऐसा वर्णन नहीं मिलता। गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में अलग ही वर्णन आता है। कहा गया है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल के बुद्धिकौशल से संपन्न हुआ था।
वाल्मीक रामायण में वर्णन है कि : –
नलर्श्चके महासेतुं मध्ये नदनदीपते:। स तदा क्रियते सेतुर्वानरैर्घोरकर्मभि:।।
रावण की लंका पर विजय पाने में समुद्र पार जाना सबसे कठिन चुनौती थी। कठिनता की यह बात वाल्मीक रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनो में आती है-
वाल्मीक रामायण में लिखा है –
अब्रवीच्च हनुमांर्श्च सुग्रीवर्श्च विभीषणम। कथं सागरमक्षोभ्यं तराम वरूणालयम्।। सैन्यै: परिवृता: सर्वें वानराणां महौजसाम्।।
(हमलोग इस अक्षोभ्य समुद्र को महाबलवान् वानरों की सेना के साथ किस प्रकार पार कर सकेंगे ?) (6/19/28)
वहीं तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णन है –
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांती।।
समुद्र ने प्रार्थना करने पर भी जब रास्ता नहीं दिया तो राम के क्रोधित होने का भी वर्णन मिलता है। वाल्मीक रामायण में तो यहां तक लिखा है कि समुद्र पर प्रहार करने के लिए जब राम ने अपना धनुष उठाया तो भूमि और अंतरिक्ष मानो फटने लगे और पर्वत डगमडा उठे।
तस्मिन् विकृष्टे सहसा राघवेण शरासने। रोदसी सम्पफालेव पर्वताक्ष्च चकम्पिरे।।
गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में लिखा गया है कि तब समुद्र ने राम को स्वयं ही अपने ऊपर पुल बनाने की युक्ति बतलाई थी –
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिघि आसिष पाई।।
तिन्ह कें परस किए” गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।।
(समुद्र ने कहा -) हे नाथ। नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होंने लड़कपन में ऋषि से आर्शीवाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएंगे।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउ” बल अनुमान सहाई।।
एहि बिधि नाथ पयोधि ब”धाइअ। जेहि यह सुजसु लोक तिहु” गाइअ।।
(मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहां तक मुझसे बन पड़ेगा)सहायता करूंगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बंधाइये, जिससे, तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए।)
यह पुल इतना मजबूत था कि रामचरितमानस के लंका कांड के शुरूआत में ही वर्णन आता है कि –
बॉधि सेतु अति सुदृढ़ बनावा।
वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पांच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।
दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्। ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।। (6/22/76)
सेतु बनाने में हाई टेक्नालाजी प्रयोग हुई थी इसके वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं, जैसे –
पर्वतांर्श्च समुत्पाट्य यन्त्नै: परिवहन्ति च।
(कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा – समुद्रतट पर ले आए)। इसी प्रकार एक अन्य जगह उदाहरण मिलता है – सूत्राण्यन्ये प्रगृहृन्ति हृाायतं शतयोजनम्। (6/22/62) (कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से -सिधाई में हो रहा था।)
सेतु पर रोचक प्रसंग :
* तेलुगू भाषा की रंगनाथरामायण में प्रसंग आता है कि सेतु निर्माण में एक गिलहरी का जोड़ा भी योगदान दे रहा था। यह रेत के दाने लाकर पुल बनाने वाले स्थान पर डाल रहा था।
* एक अन्य प्रसंग में कहा गया है कि राम-राम लिखने पर पत्थर तैर तो रहे थे लेकिन वह इधर-उधर बह जाते थे। इनको जोड़ने के लिए हनुमान ने एक युक्ति निकाली और एक पत्थर पर ‘रा’ तो दूसरे पर ‘म’ लिखा जाने लगा। इससे पत्थर जुड़ने लगे और सेतु का काम आसान हो गया।
* तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में वर्णन आता है कि सेतु निर्माण के बाद राम की सेना में वयोवृद्ध जाम्बवंत ने कहा था – ‘श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान’ अर्थात भगवान श्री राम के प्रताप से सिंधु पर पत्थर भी तैरने लगे।
वाल्मीकि रामायण में रामसेतु के प्रमाण
रामसेतु के मामले में भारतीय पुरातत्व विभाग ने सुप्रीम कोर्ट में राम और रामायण के अस्तित्व को नकारने वाला जो हलफनामा दायर किया था वह करोड़ों देशवासियों की आस्था को चोट पहुंचाने वाला ही नहीं बल्कि इससे पुरातत्व विभाग की इतिहास दृष्टि पर भी बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लग गया है। एएसआई के निदेशक (स्मारक) सी दोरजी का यह कहना कि राम सेतु के मुद्दे पर वाल्मीकि रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं माना जा सकता है, भारत की ऐतिहासिक अध्ययन पद्धति के सर्वथा विरूद्ध है।
एक पुरातत्ववेत्ता के रूप में शायद उन्हें यह ज्ञान होना चाहिए था कि एएसआई के संस्थापक और पहले डायरेक्टर जनरल कनिंघम ने सन 1862-63 में अयोध्या की पुरातात्त्विक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी तो उन्होंने वाल्मीकि रामायण के आधार पर अयोध्या को एक ऐतिहासिक नगरी बताया था। कनिंघम ने उस रिपोर्ट में यह भी बताया था कि मनु द्वारा स्थापित इस अयोध्या के मध्य में राम का जन्म स्थान मंदिर था। सन् 1908 में प्रकाशित ब्रिटिशकालीन ‘इम्पीरियल गजैटियर ऑफ इन्डिया’ के खण्ड पांच में ‘एडम ब्रिज’ के बारे में जो ऐतिहासिक विवरण प्रकाशित हुआ है उसमें भी यह कहा गया है कि हिन्दू परम्परा के अनुसार राम द्वारा लंका में सैनिक प्रयाण के अवसर पर यह पुल हनुमान और उनकी सेना द्वारा बनाया गया था। डॉ. राजबली पाण्डेय के ‘हिन्दू धर्म कोश’ (पृ. 558) के अनुसार रामायण के नायक राम ने लंका के राजा रावण पर आक्रमण करने के लिए राम सेतु का निर्माण किया था। भारतीय तट से लेकर श्रीलंका के तट तक समुद्र का उथला होना और वह भी एक सीध में इस विश्वास को पुष्ट करता है कि यह रामायणकालीन घटनाक्रम से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अवशेष है। वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड का बाईसवां अध्याय विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा सौ योजन लम्बे रामसेतु का विस्तार से वर्णन करता है। रामायण में 100 योजन लम्बे और 10 योजन चौड़े इस पुल को ‘नल सेतु’ की संज्ञा दी गई है-
दश योजन विस्तर्ीणं शतयोजनमायतम्।
दहशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम् ।। वा.रा., युद्ध. 22.76
नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया थाा। विशालकाय पर्वतों और वृक्षों को काटकर समुद्र में फेंका गया था। बड़ी-बड़ी शिलाओं और पर्वत खण्डों को उखाड़कर यंत्रों के द्वारा समुद्र तट तक लाया गया था- ‘पर्वतांश्च समुत्पाट्य यन्त्रै: परिवहन्ति च’। वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त ‘अध्यात्म रामायण’ के युद्धकाण्ड में भी नल द्वारा सौ योजन सेतु निर्माण का उल्लेख मिलता है-
‘‘बबन्ध सेतुं शतयोजनायतं सुविस्तृतं पर्वत पादपैर्दृढम्।’’
दरअसल. रामायणकालीन इतिहास के सन्दर्भ में पुरातत्त्व विभाग का गैर ऐतिहासिक रवैया रहा है। प्रोव् बी.बी. लाल की अध्यक्षता में 1977 से 1980 तक रामायण परियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, चित्रकूट, जनकपुर, श्रृंगवेरपुर, भरद्वाज आश्रम का पुरातत्त्व विभाग ने उत्खनन किया किन्तु श्रृंगवेरपुर को छोड़कर अन्य रामायण स्थलों की रिपोर्ट आज तक प्रकाशित नहीं हुई। वर्तमान निदेशक (स्मारक) को रामायण की ऐतिहासिकता को नकारने से पहले पुरातत्त्व विभाग द्वारा रामायण परियोजनाओं की रिपोर्ट की जानकारी देनी चाहिए। यह कैसे हो सकता है कि जब रामायण के स्थलों की खुदाई का सवाल हो तो वाल्मीकि रामायण को प्रमाण मान लिया जाए मगर रामसेतु के मसले पर रामायण को ऐतिहासिक दस्तावेज मानने से इन्कार कर दिया जाए। जाने माने पुरातत्त्ववेत्ता गोवर्धन राय शर्मा के अनुसार प्रो. लाल को परिहार से ताम्रयुगीन संस्कृति के तीर भी मिले थे जो स्थानीय लागों के अनुसार लव और कुश के तीर थे। किन्तु इन सभी पुरातत्त्वीय सामग्री की व्याख्या तभी संभव है जब वाल्मीकि रामायण को इतिहास का स्रोत माना जाए।

आखिरी हिंदू राष्ट्र भी मिट गया दुनिया के नक्शे से….!

 आखिरी हिंदू राष्ट्र भी मिट गया दुनिया के नक्शे से….!

भारत का पड़ोसी देश नेपाल सदियों से हिंदू राष्ट्र था मगर दुनिया के नक्शे से अब यह आखिरी हिंदू राष्ट्र भी मिट गया। लिच्छवि, मल्ल और अंततः शाहवंश का आखिरी राजा ज्ञानेन्द्र हिंदू राष्ट्र नेपाल का साक्षी रहा। यहां यह कहना मुनासिब होगा कि ज्ञानेन्द्र की सत्तालोलुपता भी राजशाही के पतन का कारण बनी। ज्ञानेन्द्र प्रशासनिक तौर पर एक कमजोर शासक साबित हुआ जो बदलते नेपाल को भांप नहीं पाया। नतीजे में नेपाल के तेजतर्रार शिक्षक और माओवादी नेता प्रचण्ड ने लंबी लड़ाई के बाद इस राजशाही को पहले बुलेट और फिर बाद में बैलेट (मतपत्र ) से बेदखल कर दिया।

इतिहास साक्षी रहा है कि हर पुरानी व्यवस्था व सत्ता को नई चुनौतियों के सामने झुकना पड़ा है। ऱूढ़ियों में डूबे हिंदू धर्म को पहले बौद्ध और फिर जैनियों ने चुनौती दी। सत्ता, समाज व व्यवस्था सभी कुछ बदल दिया। भक्ति व समाज सुधार आंदोलनों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके बाद मुस्लिम व हिंदू व्वस्था को अपेक्षाकृत प्रगतिशील अंग्रेजों व ईसाई मिशनरियों ने चुनौती दी। धर्म और आस्था पर टिके हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध व जैन मतावलंबियों के बनाए समाज व सिद्धांत को वामपंथी आंदोलनों ने चुनौती दी। इन सभी चुनौतियों ने एक ऐसी अलग दुनिया कायम करदी जिसका लोहा पथभ्रष्ट हो चुके पुराने समाज को भी मानना पड़ा। इन परिवर्तनों से ऐसी नहीं हुआ कि कोई पूरी तरह से मिट गया। सुधारों के जरिए वह भी अपना वजूद कायम रखे हुए है। मगर यह समाज और धर्म पर लागू होता है। किसी अकर्मण्य शासक पर नहीं। नेपाल में जनता ने परिवर्तन का स्वागत किया मगर अकर्मण्य राजशाही मिट गई। जनता की आंखों इसी परिवर्तन की ललक प्रचणड ने देख ली थी।

इसी परिवर्तन की लहर में अब नेपाल भी भारत की तरह गणतंत्र हो जाएगा। जिस किस्म का नेपाल सदियों तक हिदू राष्ट्र रहा वैसा भारत सिर्फ प्राचीन काल में था। वह भी तुर्कों, सल्तनत से लेकर मुगलों के दौर में तो सिर्फ हिंदू रियासतें ही बचीं थीं। यानी भारत एकछत्र हिंदू राषट्र गुप्तवंश के चक्रवर्ती राजा समुद्रगुप्त तक था। सम्राट अशोक ने भी भारत को एकीकृत किया और कुछ मायने में उनके काल में भी भारत हिंदू राष्ट्र रहा। इस प्रक्रिया को वर्धन वंश के प्रतापी शासक हर्षवर्धन ने भी कायम रखा। तब पूरे भारत वर्ष में तमाम हिंदू रियासतें थीं जो आपस में युद्धरत रहा करतीं थीं।उत्तर भारत के प्रतिहार, बंगाल के पाल और दक्षिणके राष्ट्रकूट वंश के राजाओं ने तो विजय अभियान के तहत पूरे भारत वर्ष को ही रौंद दिया। यह सब होते हुए भी १०वीं शताब्दी तक भारत टुकड़ों में हिंदू राष्ट्र ही बना रहा। मराठा हों या फिर मेवाड़ के राजपूत सभी को मुंह की खानी पड़ी। कोई भी नेपाल का पृथ्वीनारायण शाह नहीं बन पाया। नतीजा यह रहा कि मोहम्मद गजनवी के हमले और अंततः दिल्ली में सल्तनत वंश और उसके बाद मुगल सत्ता काबिज होने के बाद से भारत धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों के आधीन हो गया।

दक्षिण भारत में पहले चालुक्यों और बाद में विजयनगर साम्राज्य, या फिर प्रतिहार पाल व राष्ट्रकूट वंश और चौहान वंश के राजाओं ने हिंदू सत्ता बनाए रखी। मगर यह सब कुछ वैसे हिंदू शासक नहीं बन पाए जैसा १८वीं शताब्दी में नेपाल के एकीकरण और हिंदू धर्म व संस्कृति के लिए पृथ्वीनारायण शाह ने कर दिखाया। उसने नसिर्फ नेपाल का एकीकरण किया बल्कि एक ऐसे मजबूत हिंदू राष्ट्र नेपाल का निर्माण किया जिसने अपने ताकत के बल पर चीनियों को रोका और अंग्रेजों को भी अपनी ताकत से धूल चटा दी। भारत में हिंदू सत्ता अंग्रेजी शासन के आगे टिक ही नहीं पाई। मगर नेपाल अप्रैल २००८ के पहले तक दुनिया का इकलौता हिंदू राष्ट्र बना रहा। नेपाल के इस उत्थान पतन की कहानी एक ऐसे हिंदू राष्ट्र की कहानी है जो सदियों तक भारत के मनीषियों की तपस्थली रहा है। नेपाल के प्राचीन इतिहास में एक बार झांककर देखें तो वहां नेपाल नहीं भारत भी दिखाई देगा। आदिकालीन नेपाल के साथ माओवादियों के सत्तासीन होने की गाथा नेपाल में ऐतिहासिक परिवर्तन की गाथा है। आइए अवलोकन करें। यहां सबकुछ समेटना संभव नहीं हुआ अतः जो छूटा हुआ लगे उसे मैं आपकी टिप्पणियों खोजूंगा। आइए सफर शुरू करते हैं।

नेपाल का इतिहास

नेपाल एक दक्षिण एशियायी और भारत का पड़ोसी हिमालयी राष्ट्र है। नेपाल के उत्तर में चीन का वह स्वशासित राज्य तिब्बत है जो आजादी के लिए संघर्ष कर रहा है। यानी नेपाल और चीन के बीच अवस्थित है तिब्बत। नेपाल के दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में भारत अवस्थित है। नेपाल मे ८५ प्रतिशत से ज्यादा नागरिक हिन्दू हैं। यह प्रतिशत भारत में हिन्दुओं के आनुपातिक प्रतिशत से भी अधिक है। इस मायने में नेपाल विश्व का सबसे बड़ा हिन्दू धर्मावलम्बी राष्ट्र भी है। नेपाल भौगोलिक विविधता वाला ऐसा देश हैजहां का तराई इलाका गर्म है तो हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं वाला इलाका बेहद ठंडा भी है। संसार का सबसे ऊंची १४ हिमश्रृंखलाओं में से आठ नेपाल में हैं। नेपाल की राजधानी और सबसे बडा शहर काठमाडौं है। नेपाल के प्रमुख शहर लिलतपुर (पाटन), भक्तपुर,मध्यपुर, कीर्तिपुर, पोखरा, विराटनगर, धरान,भरतपुर, वीरगञ्ज, महेन्द्रनगर,बुटवल,हेटौडा भैरहवा, जनकपुर, नेपालगञ्ज, वीरेन्द्रनगर,त्रिभुवननगर आदि है। आज का नेपाल यही है। आइए प्राचीन नेपाल का अवलोकन करते हैं।

प्राचीन नेपाल-मिथकीय युग

भारत और नेपाल का मिथकीय युग एकसाथ शुरू होता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार नेपालकी संस्कृति और सभ्यता का इतिहास मनु से आरम्भ माना जा सकता है। मनु ही नेपाल के पहले राजा थे जिन्हों ने सत्ययुग में यहां राज किया। तब नेपाल सत्यभूमि के नाम से जाना जाता था। त्रेतायुग (सिल्वर युग ) में नेपाल को तपोवन तथा द्वापरयुग (ताम्र युग ) में इसे मुक्तिसोपान भी कहा जाता था। कलियुग (लौहयुग ) यानी मौजूदा समय में इसे नेपाल कहा गया। सत्ययुग में सौर्य वंश ने नेपाल की सभ्यता व संस्कृति के विकास में भरपूर योगदान किया। आज का सौर्य कैलेंडर और उस पर आधारित त्योहार इसी वंश की देन हैं।
जंगलों से आच्छादित नेपाल को तत्कालीन तपस्वियों यथा- कण्व, विश्वमित्र, अगत्स्य, वाल्मीकि, याग्यवलक्य व दूसरे रिषियों ने अपनी तपस्थली बना ली थी। भारत के राजा दुष्यंत ने नेपाल के ही कण्व रिषी की पुत्री शकुन्तला से शादी की थी। उसी के पुत्र भरत ने यहां शासन किया। इसी ने उस विशाल साम्राज्य की स्थापना की जो आज का भारत भी है। भरत के साम्राज्य को महाभारत कहा गया। विभिन्न हिंदू धर्मग्रंथों में नेपाल के बारे में लिखा है। जनकपुर के न्यायप्रिय राजा जनक का भी विवरण इन्हीं ग्रंन्थों में मिलता है। कुछ विचारकों की राय में तो रामायण की रचना यहीं के सप्तगंडकी नदी के तट पर की गई। महर्षि वेदव्यास यहीं पैदा हुए थे। नेपाल के दमौली (व्यास नगर ) में व्यास गुफा है, जो इस अवधारणा को पुष्टि करती है। इसी तरह महाभारत में उल्लिखित महाराज विराट भी नेपाल के विराटनगर के राजा थे। ये सारे तथ्य इस बात के सबत हैं कि मंजूश्री के कांठमांडो घाटी में आने से काफी पहले नेपाल का अश्तित्व था। स्यंभू पुराण में वर्णित है कि चीन से कांठमांडो आकर मंजूश्री ने नागदह नामक विशाल झील के इर्दगिर्द लोगों को बसाया। उसने मंजूपत्तनम नामक शहर बसाया और धर्माकर को राजा बनाया। इसके बाद से नेपाल का इतिहास कांठमांडों के इर्दगिर्द घूमता है। इसके बाद यहां कई राजवंशों ने शासन किया। ये हैं-आहिर या गोपाल, किरात, लिच्छवी, मल्ल और शाह।

नेपाल शब्द की व्युत्पत्ति

“नेपाल” शब्द की उत्त्पत्ति के बारे मे ठोस प्रमाण कुछ नही है, लेकिन एक प्रसिद्ध विश्वास अनुसार यह शब्द ने नामक ऋषि तथा पाल (गुफा) से मिलकर बना है। माना जाता है कि एक समय में बागमती और विष्णुमती नदियों संगमस्थल पर ने ऋषि की तपस्थली थी। ने रिषी ही यहां के राजा के सलाहकार थे। सामान्य तौर पर इस हिमालयी भूभाग पर गोपाल राजवंश का शासन था। इस वंश के लोग नेपा भी कहे जाते थे। इसी नेपा नाम से गोपालवंश शासित भूभाग नेपाल कहा गया।
एक मान्यता यह भी है कि काठमांडो घाटी में रहने वाली नेवर जनजाति के नाम पर नेपाल नाम पड़ा होगा। गंडकी महात्म्य में एक राजा नेपा का उल्लेख है जिसने यहां न सिर्फ शासन किया बल्कि तमामा राज्यों को जीता भी। भगवान शंकर नेपा के आराध्य थे। इसी राजा ने अपने नाम पर इस राज्य का नाम नेपाल रखा।
तिब्बती भाषा में ने का अर्थ होता है घर और पाल का अर्थ होता है ऊन। अर्थात वह इलाका जहां ऊन पाया जाता है। इस ने और पाल से नेपाल बना होगा।जबकि नेवारी भाषा में ने का अर्थ बीच में और पा का अर्थ देश होता है।यानी ऐसा देश जो दो देशों के बीच में अवस्थित हो। भारत और चीन के बीच अवस्थित होने के कारण हा इसका नाम नेपाल पड़ा होगा। इसी तरह लिम्बू बोली में ने को तराई कहा जाता है। काठमांडों भी तराई है इसलिए नेपाल नाम पड़ा होगा।लेप्चा लोगों की बोली में ने का अर्थ पवित्र और पाल का अर्थ गुफा होता है। बौद्धों और हिंदुओं के पवित्र स्थल के कारण यह पवित्र गुफा नेपाल के नाम से जानी गई।
दरअसल तमाम जनश्रुतियां हैं जिनके आधार पर नेपाल शब्द की व्युत्पत्ति मानी जाती है। मगर प्राचीन नेपाल और नेपाल शब्द की इस व्युत्पत्ति के संदर्भ में ठोस लिखित साक्ष्य उपलब्ध नहीं है क्यों कि तत्कालीन समय में विधिवत इतिहास लिखा भी नहीं गया। बाद के जो साक्ष्य उपलब्ध है उसके ही आधार पर प्राचीन नेपाल और आधुनिक नेपाल की कड़ियां जोड़ने का प्रयास इतिहासकार किए हैं। बदलते नेपाल की तस्वीर इसी आधार पर उकेरी जा सकती है।
नेपाल के प्रमाणिक इतिहास को ऐतिहासिक पर इमारतों, सिक्कों, मंदिरों, देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियों, कलात्मक अभिलेख और तत्कालीन साहित्य और १८०० ईसवी के आसपास के क्रानिकल्स (बस्मावलीज) से ही प्रमाणिक प्रकाश डाला जा सकता है। इनमें से सबसे प्रमाणिक क्रानिकल्स को ब्राह्मणों और बज्रकाचार्य ने संतलित किए हैं। ये राजा द्वारा किए गए धार्मिक कार्यों का विवरण है।
इनमें से एक को राणा बहादुर शाह के समय में बौद्ध भिक्षु पाटन ने लिखा था। डेनियल राइट ने इसका अंग्रेजी में अनवाद किया है। इसमें राजा का इतिहास और कुछ घटनाएं वर्णित हैं मगर इन क्रानिकल्स से सभ्यता, संस्कृति या लोगों के रहन-सहन के बारे में कुछ पता नहीं चलता है।
नेपाल के इतिहास पर प्राचीन काल में हाथों से लिखी गईं पांडुलिपियों से भी प्रकाश डाला गया है। इन पांडुलिपियों (कोलोफोंस) ने समकालीन राजा के विवरण के साथ आखिर पांडुलिपि के लेखक का नाम होता है। इनके अलावा हिंदुओं के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों यथा- पुराणों, रामायण और महाभारत इत्यादि में नेपाल के विवरण मिलते हैं। इनकी मदद से भी नेपाल का इतिहास लिखा गया है। मसलन रामायण में नेपाल के जनकपुर के राजा जनक की पुत्री सीता से अयोध्या के राजकुमार राम का विवाह का विवरण है। महाभारत के युद्ध में नेपाल के राजा के भाग लेने का जिक्र भी मिलता है। दमयन्ती के स्वयंबर में नेपाल के राजा ने भाग लिया था। नेपाल के इतिहास के ये सभी लिखित साक्ष्य हैं।
नेपाल का इतिहास लिखने के लिए प्रस्तर और ताम्र अभिलेखों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। ये अभिलेख पांचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच संस्कृत में लिखे गए हैं। इनमें चंगूनारायण के मंदिर से प्राप्त अभिलेख प्रमुख हैं। हालांकि लिच्छवी राजा शिवदेव के बाद के शासकों के अभिलेख अभी तक नहीं मिले हैं। १४वीं शताब्दी से मल्ल राजाओं के शासनकाल के अभिलेख प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। प्राचीन भवन, मंदिर व स्तूप भी प्राचीन नेपाल की कहानी कहते हैं। इनमें चंगूनारायण, पशुपतिनाथ, हनुमान धोका, पाटन का कृष्णमंदिर भक्तपुर का पांचमंजिला न्यातापोल, स्वयंभूनाथ. बौद्धनाथ, महाबौद्ध प्रमुख है। मल्ल राजाओं के बनवाए मंदिर और मूर्तियां ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। विभिन्न जगहों से मिलों सिक्के नेपाल के इतिहास की कड़ी हैं। भारतीय और यूरोपीय इतिहासकारों के विवरणों और ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई से मिले अवशेषों में भी प्राचीन नेपाल दर्ज है। काठमांडों घाटी में नवपाषाण युग के अवशेष पाए गए हैं।

१८वीं शताब्दी से पहले का नेपाल

१८वीं शताब्दी से पहले नेपाल देश काठमांडों घाटी तक सीमित था। यानी काठमांडों का वृहद इतिहास ही नेपाल का इतिहास है। १४वीं शताब्दी के पहले का इतिहास हिंदू महाकाव्यों के अलावा बौद्ध और जैन स्रोंतों पर ज्यादा आधारित है। नेपाल का दस्तावेजी इतिहास लिच्छवी वंश के शासक महादेव ( ४६४ शताब्दी से ५५० ईसवी ) के चंगूनारायण मंदिर से प्राप्त अभिलेख से शुरू माना जा सकता है। लिच्छवियों ने नेपाल में ६३० शाल तक शासन किया। इनका आखिरी शासक था जयकामादेव।
लिच्छिवियों के पतन के बाद १२वीं शताब्दी में अरिमल्ल के राजगद्दी हासिल करने करने के साथ ही मल्ल राजाओं का शासन शुरू होता है जो दो शताब्दियों यानी १४वीं शताब्दी के आखिर तक कायम रहता है। इन्हीं शासकों ने कांतिपुर नामक शहर को बसाया जिसे आज हम काठमांडो के नाम से जानते हैं। इन दो शताब्दियों में महत्वपूर्ण सामाजिक व आर्थिक सुधार किए। पूरे काठमांडो घाटी में संस्कृत भाषा को स्थापित किया। जमीन की पैमाइश के नए पैमाने ईजाद किए। जयसाथीतिमल्ल ने १५वीं शताब्दी के आखिर तक काठमांडो घाटी पर शासन किया। इसके मरने के साथ ही घाटी का यह साम्राज्य १४८४ ईसवी में तीन टुकड़ों- काठमांडो, भक्तपुर और पाटन में विभक्त हो गया। मल्ल राजाओं की शक्ति क्षीण होते ही पृथ्वी नारायण शाह ने काठमांडो घाटी पर हमला किया। इसी शाह वंश ने आगे चलकर नेपाल का एकीकरण किया। मल्ल वंश के आखिरी शासक थे- काठमांडो में जयप्रकाश मल्ल, पाटन में तेज नरसिंह मल्ल और भक्तपुर में रंजीत मल्ल।

शाह राजवंश और नेपाल का एकीकरण

आधुनिक नेपाल के एकीकरण के श्रेय शाहवंश के पृथ्वीनारायण शाह ( १७६९-१७७५ ईसवी ) को जाता है। शाह वंश के संस्थापक द्रव्यशाह ( १५५९-१५७० ईसवी ) के नौंवें उत्तराधिकारी पृथ्वीनारायण अपने पिता नारा भूपाल शाह के बाद उस समय के ताकतवर गोरखा शासन की कमान १७४३ ईसवी में संभाली। जिस तरह भारत और चीन के बीच तिब्बत है उसी तरह काठमांडो और गोरखा के बीच नुवाकोट था।

पृथ्वीनारायण शाह ने अपना विजय अभियान १७४४ ईसवी में नुवाकोट की जीत से शुरू किया। इसके बाद काठमांडों घाटी के उन सभी ठिकानों को अपने कब्जे में ले लिया जो सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण थे। इसके बाद काठमांडो घाटी का संपर्क बाकी दुनिया से कट गया। सन् १७७५ में कुटी दर्रा पर कब्जे के बाद पृथ्वीनारायण ने अंततः काठमांडो घाटी का तिब्बत से व्यापारिक संपर्क भी छिन्नभिन्न कर दिया। अब पृथ्वीनारायण शाह ने घाटी में प्रवेश करके कीर्तिपुर पर हमला कर दिया। अब तक बेखबर सो रहा मल्ल शासक जयप्रकाश मल्ल घबरा गया और ब्रिटिश सेना से मदद मांगी। १७५६ में ईस्ट इंडिया की और से कैप्टेन किंलोच अपने सिपाहियों के लेकर मदद के लिए हाजिर हुआ। पृथ्वीनारायण शाह की सेना ने फिंरंगियों को परास्त जयप्रकाश मल्ल की उम्मीदों को धूल में मिला दिया।

बड़े नाटकीय तरीके से पृथ्वीनारायण शाह ने २५ सितंबर १७६८ को काठमांडो पर तब कब्जा कर लिया जब वहां के लोग इंद्रजात्रा उत्सव मना रहे थे। काठमांडो के लोगों ने तो पृथ्वीनारायण शाह का राजा के तौर पर स्वागत किया मगर जयप्रकाश मल्ल भाग निकला। ुसने पाटन में शरण ली। जब एक सप्ताह बाद पृथ्वीनारायण शाह ने पाटन को कब्जे में ले लिया तो जयप्रकाश मल्ल और पाटन का राजा तेजनरसिंह मल्ल दोनों ने भक्तपुर में शरण ली। भक्तपुर भी नहीं बचा और नेपाल के एकीकरण अभियान में यह भी जीत लिया गया। इस विजय के बाद १६९ में कांठमांडो को आधुनिक नेपाल की राजधानी बना दिया गया। विभिन्न जातियों को राष्ट्रीयता के दायरे में लाने का पृथ्वीनारायण शाह ने वह अभूतपूर्व कार्य किया जिसके चलते एकीकरण के बाद एक छत्र नेपाल राष्ट्र बन पाया। अंग्रेजों के हमले ने इस एकीकृत नेपाल को भारी क्षति पहुंचाई। अंग्रेजों के साथ नेपाल का पश्चिमी तराई खासतौर पर बुटवल और सेवराज को लेकर था। अंग्रेजों ने १८१४ ईसवी में नेपाल के पश्चिमी सीमा पर स्थित नलपानी पर हमला कर दिया। अंग्रेजी सेना भारी पड़ी और नेपाली सेना को महाकाली नदी का पश्चिमी किनारा खाली करना पड़ा। अंग्रेजों के साथ १८१६ ईसवी में सुगौली की संधि करनी पड़ी जिसमें नेपाल की पश्चिमी सीमा महाकाली और मेची नदियों तक सीमित हो गई। इस समय नेपाल पर राजा गिरवान युद्ध विक्रम शाह नेपाल का राजा था। उनके प्रधानमंत्री भीमसेन थापा थे। इस संधि से नेपाल का वह हश्र नहीं हुआ जो भारतीय राजाओं का हुआ। नेपाल और शाहवंश का इस संधि के बाद भी वजूद रहा मगर भारत की रियासतों को एक-एक कर लील गए अंग्रेज और नतीजे में अंततः भारत गुलाम हो गया।

भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?

 भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ? इस सवाल पर आपके या किसी राजनैतिक सरोकार रखने वाले व्यक्ति के जवाब जो हों मगर एक पत्रकार सुहेल सेठ ने इसका जवाब अपनी नजर से ढूंढा है। १९ अक्तूबर को मोदी से मुलाकात के बाद उन्होंने जो लेख लिखा उसमें मोदी संहारक नहीं बल्कि भारत के एक संवेदनशील राजनीतिज्ञ नजर आ रहे हैं। सुहेल सेठ वह पत्रकार हैं जिन्होंने मोदी के खिलाफ तबतक खूब लिखा जबतक उनसे मिले नहीं थे। आखिर मोदी में उन्हें क्या दिखा जिसने उनका मोदी के प्रति नजरिया ही बदल दिया ? सुहेल का यह लेख मुझे मेल से मिला है। उसके हिंदी सारसंक्षेप का आप भी अवलोकन कीजिए। हो सकता है कि आपकी राय सुहैल जैसी न हो। तो फिर क्या है आपकी राय यह तो मैं भी जानना चाहूंगा। फिलहाल लेख देखिए…

भारत को नरेंद्र मोदी ही क्यों चाहिए ?
लेखक—-सुहेल सेठ

मैं एक खुलासा करने जा रहा हूं। मैंने शायद मोदी और गोधरा कांड के बाद से मोदी की कारगुजारियों के खिलाफ सबसे ज्यादा लिखा है। मोदी को मैंने आज का हिटलर भी बना दिया। अक्सर अपने लेखों में मैंने यह धारदार तरीके से कहा है कि मोदी का कुकृत्य न सिर्फ उनके लिए बल्कि भारतीय राजनीति के लिए एक कलंक बना रहेगा। मैं तो आज भी मानता हूं कि गुजरात में गोधरा के दंगों में जो कुछ हुआ देश को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। मगर हकीकत यह है कि मोदी ने उस कालचक्र को ही आगे बढ़ा दिया । मोदी को गोधरा दंगों के बाद देश का सबसे सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ करार दिया गया मगर यह हैरान कर देने वाली बात है कि धर्मनिरपेक्षता की मसीहा कांग्रेस पर भी १९८४ में वह दंगे कराने का आरोप है जिसमें ३५०० सिख मारे गए थे। जबकि गुजरात के दंगे में इससे तीनगुना कम लोग मारे गए थे। सांप्रदायिकता की किसी व्याख्या से परे हकीकत यह है कि भारतीय राजनीति में मोदी से बेहतर प्रशासक कोई नहीं है।
तीन सप्ताह पहले ( सुहेल सेठ का मूल लेख छपने की तारीख के हिसाब से ) मैं अमदाबाद गया था।
मुझे लगा कि यह मोदी से मिलने का अच्छा मौका है। मैंने एप्वाइंटमेंट मांगा और उसी दिन का समय मिल गया जिस दिन मैं अमदाबाद पहुंचा। सरकारी तामझाम से अलग मेरी मुलाकात मोदी से उनके घर पर ही हुई। वह भी उसी तरह जैसे खुद मोदी अपने घर में दिखते हैं। मोदी का घर और रहनसहन देखकर मैं हतप्रभ था। यह कुछ ऐसा था जिसे मायावती और गांधी के झंडाबरदारों को भी मोदी से सीखना चाहिए।
मोदी के घर में सेवकों की भीड़ नदारद थी। कोई सचिव या सहायक भी मुश्तैद नहीं था। सिर्फ हम दो और एक सेवक था जो हमारे लिए चाय ले आया था। यह मोदी का वह आभामंडल था जिसमें गुजरात का विकास और राज्य के लोगों के जीवन स्तर को बेहतर करने की दृढ़ता दिखाई दे रही थी। सच भी है। आज सिंगापुर में गुजरात का दूध बिकता है। अफगानी खाते हैं गुजराती टमाटर। कनाडा में भरा पड़ा है गुजरात का पैदा किया हुआ आलू। यह सब विकास की हार्दिक कामना व कोशिश के बिना संभव नहीं । मोदी ने संभव कर दिखाया है। इतना ही नहीं साबरमती के तट पर एक ऐसा औद्योगिक शहर बनाया जाना प्रस्तावित है जिसे देखकर दुबा और हांगकांग को भी झेंप महसूस होगी। वह मोदी ही हैं जिसने सभी नदियों को आपस में जोड़ा जिसके कारण अब साबरमती नदी सूखती नहीं।

गुजरात में नैनो

मोदी ने यह भी बताया कि कैसे नैनो परियोजना को गुजरात लाने में उन्होंने उत्सुकता दिखाई। रतन टाटा को प्रभावित करने के लिए उस पहले पारसी पुजारी नवसारी की कथा सुनाई। नवसारी पुजारी पहला पारसी पुजारी था जो गुजरात आया था। उस समय के गुजरात के शासक ने एक गिलास दूध भिजवाकर कहलवाया कि उनके लिे यहां कोी जगह नहीं है। तब पुजारी ने दूध में शक्कर मिलाकर वापस भिजवाया और कहा कि शक्कर में दूध की तरह ही वे स्थानीय लोगों से घुलमिल जाएंगे। इससे गुजरात को फायदा ही होगा। अर्थात वह हर कोशिश मोदी गुजरात के लिए कर रहे हैं जो राज्य को संपन्न और मजबूत बनाए। अपने इसी हौसले के कारण मोदी अब भाजपा का वह तुरुप का पत्ता हैं जिसे आडवाणी के बाद इस्तेमाल किया जाता है।

आतंकवाद के खिलाफ रणनीति

मोदी मानते हैं कि देश के पास आतंकवाद से लड़ने की कोई रणनीति नहीं है। उन्होंने बताया कि कैसे उन्होंने दिल्ली के बम धमाकों के बारे में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और सुरक्षा एजंसियों को आगाह किया था मगर उन्होंने इस सूचना को गंभीरता से नहीं लिया। नतीजा सामने था कि १३ सितंबर को दिल्ली में बम धमाके हुए। आतंकवाद से जूझने की स्पष्ट रणनीति के अभाव में ही हम झेल रहे हैं आतंकवाद। कुल मिलाकर मोदी व्यावसायिक प्रगति के लिए कानून व व्यवस्था को समान तरजीह देते हैं।
काम करने के तरीके और अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीरता ने साबित कर दिया है कि वे गुजरात के प्रति कितने समर्पित हैं। उनसे मिलने के बाद जब लौटने के लिए कार में बैठा तो अपने ड्राईवर से पूछा कि कैसे हैं नरेंद्र मोदी ? साधारण से उसका जवाब था- मेरे लिए तो भगवान हैं। यह तथ्यगत बात है कि मोदी से पहले गुजरात को पास उतना कुछ नहीं था जो आज है। न रोड था, न बिजली और न मूलभूत ढांचा। आज गुजरात के पास अतिरिक्त बिजली है। गुजरात अब दूसरे राज्यों से ज्यादा उद्योगपतियों को आकर्षित करता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी गुजरात को ही तरजीह देती हैं। यही वह कुछ है जो मोदी ने गुजरात को दिया है और बाकी राज्यों में नहीं है।
जिस कार्यक्रम में मैं गया था वहां लोगों से नरेंद्र मोदी के बारे में पूछा तो जवाब था– अगर भारत के पास ऐसे पांच नरेंद्र मोदी होते हमारा देश महान हो जाता। अब मुझे भी पक्का भरोसा हो गया था कि सच में भारत को ऐसा ही युगपरिवर्तक नरेंद्र मोदी चाहिए।

“हम वतन के लिए सिर कटाते रहे”….!

280 लाख करोड़ का सवाल है
भारतीय गरीब है लेकिन भारत देश कभी गरीब नहीं रहा

* ये कहना है स्विस बैंक के डाइरेक्टर का. स्विस बैंक के डाइरेक्टर ने यह भी कहा है कि भारत का लगभग 280 लाख करोड़ रुपये उनके स्विस बैंक में जमा है. ये रकम इतनी है कि भारत का आने वाले 30 सालों का बजट बिना टैक्स के बनाया जा सकता है.


या यूँ कहें कि 60 करोड़ रोजगार के अवसर दिए जा सकते है. या यूँ भी कह सकते है कि भारत के किसी भी गाँव से दिल्ली तक 4 लेन रोड बनाया जा सकता है.

 

ऐसा भी कह सकते है कि 500 से ज्यादा सामाजिक प्रोजेक्ट पूर्ण किये जा सकते है. ये रकम इतनी ज्यादा है कि अगर हर भारतीय को 2000 रुपये हर महीने भी दिए जाये तो 60 साल तक ख़त्म ना हो. यानी भारत को किसी वर्ल्ड बैंक से लोन लेने कि कोई जरुरत नहीं है. जरा सोचियेहमारे भ्रष्ट राजनेताओं और नोकरशाहों ने कैसे देश को

लूटा है और ये लूट का सिलसिला अभी तक 2011 तक जारी है.


इस सिलसिले को अब रोकना बहुत ज्यादा जरूरी हो गया है. अंग्रेजो ने हमारे भारत पर करीब 200 सालो तक राज करके करीब 1 लाख करोड़ रुपये लूटा.

 

मगर आजादी के केवल 64 सालों में हमारे भ्रस्टाचार ने 280 लाख करोड़ लूटा है. एक तरफ 200 साल में 1 लाख करोड़ है और दूसरी तरफ केवल 64 सालों में 280 लाख करोड़ है. यानि हर साल लगभग 4.37 लाख करोड़, या हर महीने करीब 36 हजार करोड़ भारतीय मुद्रा स्विस बैंक में इन भ्रष्ट लोगों द्वारा जमा करवाई गई है.

 

भारत को किसी वर्ल्ड बैंक के लोन की कोई दरकार नहीं है. सोचो की कितना पैसा हमारे भ्रष्ट राजनेताओं और उच्च अधिकारीयों ने ब्लाक करके रखा हुआ है.

 

हमे भ्रस्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के खिलाफ जाने का पूर्ण अधिकार है.हाल ही में हुवे घोटालों का आप सभी को पता ही है – CWG घोटाला, २ जी स्पेक्ट्रुम घोटाला , आदर्श होउसिंग घोटालाऔर ना जाने कौन कौन से घोटाले अभी उजागर होने वाले है ……..

 

“दर्द होता रहा छटपटाते रहे,

आईने॒से सदा चोट खाते रहे,

वो वतन बेचकर मुस्कुराते रहे “

 

 

गर्व से कहो हम भारतीय है…..

    विश्‍व भर के इतिहासकारों, लेखकों, राजनेताओं और अन्‍य जानी मानी हस्तियों ने भारत की प्रशंसा की है और शेष विश्‍व को दिए गए योगदान की सराहना की है। जबकि ये टिप्‍पणियां भारत की महानता का केवल कुछ हिस्‍सा प्रदर्शित करती हैं, फिर भी इनसे हमें अपनी मातृभूमि पर गर्व का अनुभव होता है।

“हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्‍होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!”
– एल्बर्ट आइनस्‍टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी)

“भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्‍म स्‍थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्‍पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्‍मक सामग्री का भण्‍डार केवल भारत में है!”
– मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)

“यदि पृथ्‍वी के मुख पर कोई ऐसा स्‍थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्‍य ने अपने अस्तित्‍व का सपना देखा, वह भारत है।!”
– रोम्‍या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान)

“भारत ने शताब्दियों से एक लम्‍बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्‍थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्‍ट्रों के बीच अपना स्‍थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्‍यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्‍यता का प्रचार प्रसार किया है।”
– सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान)

“सभ्‍यताएं दुनिया के अन्‍य भागों में उभर कर आई हैं। प्राचीन और आधुनिक समय के दौरान एक जाति से दूसरी जाति तक अनेक अच्‍छे विचार आगे ले जाए गए हैं. . . परन्‍तु मार्क, मेरे मित्र, यह हमेशा युद्ध के बिगुल बजाने के साथ और ताल बद्ध सैनिकों के पद ताल से शुरू हुआ है। हर नया विचार रक्‍त के तालाब में नहाया हुआ होता था . . . विश्‍व की हर राजनैतिक शक्ति को लाखों लोगों के जीवन का बलिदान देना होता था, जिनसे बड़ी तादाद में अनाथ बच्‍चे और विधवाओं के आंसू दिखाई देते थे। यह अन्‍य अनेक राष्‍ट्रों ने सीखा, किन्‍तु भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्‍व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्‍व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्‍पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्‍मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्‍येक बोले गए शब्‍द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्‍ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!”
– स्‍वामी विवेकानन्‍द (भारतीय दार्शनिक)

“यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्‍या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्‍याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।”
– मेक्‍स मुलर (जर्मन विद्वान)

“भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्‍कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्‍व बनाया है।”
– हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)

“दुनिया के कुछ हिस्‍से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्‍थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्‍य वास्‍तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्‍वादों और ध्‍वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्‍याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।”
– किथ बेलोज़ (मुख्‍य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)

Hello world!

Welcome to WordPress.com. After you read this, you should delete and write your own post, with a new title above. Or hit Add New on the left (of the admin dashboard) to start a fresh post.

Here are some suggestions for your first post.

  1. You can find new ideas for what to blog about by reading the Daily Post.
  2. Add PressThis to your browser. It creates a new blog post for you about any interesting  page you read on the web.
  3. Make some changes to this page, and then hit preview on the right. You can always preview any post or edit it before you share it to the world.